saraswati
सुना
है लुप्त हो गयीं तुम ?
विशाल पर्वोतें के ह्रदय से जब तुम निकली थीं
नियति तो तय यह न
की होगी तुमनें
फिर कहाँ खो गयीं तुम ?
क्यूँ खो गयीं तुम ?
कोपलें नव जीवन की
खिलीं थीं तुम्हारे ही गर्भ में
सभ्यता ने सांस ली थी
पहले तुम्हारे ही आँचल में
ब्रहित और विशाल
तुम तो जीवन दायनी थीं
फिर कहाँ खो गयीं तुम ?
क्यूँ खो गयीं तुम ?
अब कहते सुना कुछ लोगों को
की तुम केवल एक मिथ्या थीं
केवल एक भ्रम...
क्या सच यही है?
लगता क्यूँ है की कहानी तुम्हारी
जानी पहचानी है ;
नयी नहीं बहुत पुरानी है...
सदियों से लुप्त होती आयीं हैं कई सरस्वतियाँ
हमारे अपने घर आंगनों में
आहुति देती आयीं हैं
उमीदों और इचाओं की
फ़र्ज़ और रिश्तों के होम्मों में
कभी सीता बन परित्याग हुई
दी अग्नि परीक्षा वर्चस्व
पुरषोत्तम किसी राम का बचाने को
कभी द्रौपदी बन
लगाईं गई दांव पर
उन निगाहबाणों द्वारा
त्याग ना सके मोह जो चन्द शतरंज की मौहर्रों का
सारांश यही है shayad yahi जीवन का
अर्थ किसी जीवन को देने को
अस्तित्व किसी को अपना मिटाना पड़ता है ...
महान कोई बन पाए
उसकी खातिर
लुप्त किसी को होना पड़ता है...
ज़िक्र भी उनका न मिलेगा
इतिहास के पन्नों में
इतिहास तो है वृत्तांत विजेताओं का
स्थान कहाँ है वहाँ पराजितों का
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