Wednesday, May 25, 2022

 

एक नदी की कहानी

 

नदी की चंचलता तो चाही थी मैंने भी

वो बहाव, वो उन्मुक्तता

तो जैसे मेरी ही फितरत थी

सोचा था ...

हर बांध, हर पर्वत को लाँघ

मिल जाउंगी सागर में

सर्वस्व अपना देकर...

नियति जो यही थी मेरी

सच! यही नियति थी मेरी?

 

उदगम हुआ था जहां मेरा

वो पवित्र वादियाँ, वो समाँ,

महसूस किये थे मैंने ही तो

रवि ने रोज़ सुबह दूर पहाड़ियों से निकलकर

श्वेत बर्फ की चादर को पिघलाकर

डाला था उसे आचंल में मेरे ही

फिर किरणों  से अपनी नेहला कर

खेली थी आंख मिचोली लहरों पर मेरी ही ...

 

और दुर्गम वो पहाड़ियां 

जिनसे जब जब मैं गुज़री

कण कण अपना भेंट करतीं रहीं

देती रहीं मुझे विस्तार 

एक नया आकार ...

राह तो मेरी भी खूबसूरत है

फिर उस से मिलने की ऐसी जल्दी क्यूँ?

 

 उस से भी मिलना है

उस में ही घुलना है

पर पहले

थके राहगीर की

प्यास थोड़ी भुजा लूँ

बंजरों में

अंकुर कुछ खिलां लूँ

वीरानों में शहर कुछ और बसा दूँ

पाप कुछ और आंचल में अपने समेट लूँ

जीवन की लो जला लूँ

 

जानती हूँ सागर बहुत विशाल है

मुझ सी कई नदियों का संन्गम है

सागर में समां जाने की नियति जिनकी तय है

पर क्या सागर यह जानता है

की छोटी छोटी यह नदियाँ

गर उसमें मिलें

तो अस्तितिव उसका भी सागर सा हो?

यह छोटी छोटी नदियाँ

आहुति अपनी देकर

अस्तितिव अपना खोकर

अस्तितिव उसका युगों से हैं बना रहीं

काश वो यह जनता...

काश वो यह मानता...

 

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