वो मौन अनुमोदन
पलाश की कुछ पंखुडियां
सिमटी मिली पुराणी किताब की एक तह में
याद करा गयी
कुछ लम्हें, कुछ पल
वो बीती एक बहार के...
याद हैं वो पल
जब अरमानों की कुछ पंखुडियां खिलीं थीं
श्वेत शांत मन में कुछ
हलचल हुई थी
रंग की कुछ बूदें गिरीं थीं
वो आंखों का स्पर्श किस्सी का
वो कुछ न कहकर भी
सब कुछ कह देने की कोशिश
फिर वो मौन अनुमोदन ...
वो इंतज़ार, वो अनकही मुलाक़ात
फिर जैसे खुद को खुद से हे छिपा लेने की कोशिश...
यादें हैं वो
बीते हुए उस कल की
नाज़ुक उन ख्यालों की
गुनगुनाए कुछ गीतों की
लहराती उस सतरंगी चुनर की
बेरंग हो गयी जो
अब पलाश की ही पंखुड़ियों सी...
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